Thursday, November 17, 2016

* เค•เคธौเคŸी เคชเคฐ เค•เคตिเคคा *


* कसौटी पर कविता *

एक सामान्य धारणा है कि कवि प्रशंसा और प्रोत्साहन का प्यासा होता है, इस बात का समर्थन करने वाली घटनाऐं अक्सर मिलेंगी आपको।

किसी कवि की कविता की प्रशंसा करके आप आसानी से उसे प्रसन्न कर सकते हैं। यदि कवि को लग जाये कि कोई उसकी रचना का मुरीद है, तो कवि उस व्यक्ति को चाय-पानी मुफ्त में कराता है। अपनी कविता सुनाने की धुन में वह भूल जाता है कि सामने वाला उससे कब का ऊब चुका है। श्रोता को विदा करते-करते भी चार पंक्तियाँ वह सुना ही देता है।

वास्तव में प्रशंसा के लिए आकुल कवि वही हैं जो तुक और लय जोड़कर कविता लिखने प्रयास करते हैं। जिन्हें नहीं पता कि कविता दैवीय उपहार है। परमात्मा की नैसर्गिक देन है। कोशिश करके रची गयी कविता प्रशंसा चाहती है, प्रोत्साहन चाहती है, अपने को पूर्ण मानती है। ऐसी कविताऐं ही पुरस्कार के लिए आकुल होती हैं। यह कविताऐं प्रयत्न का फल हैं, आपात अवतरण नहीं।

ऐसा कवि बार - बार बल देगा कि आप उसकी पंक्तियों पर गौर करें। उसे ऐसा कहना पडे़गा ही, अवश्य कहना पडे़गा क्योंकि हजारों रचनाओं की भीड़ में उसकी कविता को कोई क्यों पूछेगा?

मेरा अपना अनुभव है कि कविता स्वतः फूटती है; कलम विवश हो जाती है उसे लिपिबद्ध करने के लिए। कविता का स्वयं का एक दर्शन होता है, और यह खुद-ब-खुद व्यक्त हो जायेगा।

रचनाकार को रचना के समय ही जो मिलना है मिल जाता है, पर्याप्त मात्रा में कि फिर नहीं कुछ चाहिए उसे।

कबीर, सूर, रैदास, रज्जब जैसे कवियों ने कहां से सीखा कविता करना? हजारों बेजोड़ रचनाऐं दीं इन्होंने। यदि आप ऐसे रचनाकार से मिलें, तो आप धन्य हो जायेंगे, क्योंकि ये सच्चे अर्थों में मानव थे।

वास्तव में कविता दैवीय प्रस्फुरण है, यह प्रस्फुरण किसी भी हृदय में हो सकता है। जब कविता फूटती है तो वह खुद ही अपना व्याकरण और छन्द लेकर आती है। वास्तविक कविता खुद तय करती है कि उसे किस छन्द में प्रकट होना है। कविता जब मचलती है तो खुद ही दोहे, सोरठे, चौपाई और कवित्त बन जाते हैं। ऐसा अनुभव अगर आपको नहीं है, तो अभी आप कवि नहीं।

जो कवि होगा, वह अति प्रशंसा से दूर रहना चाहेगा। रचना होने के बाद नैसर्गिक कवि को खुद कई बार आश्चर्य होता है कि उसने कैसे रचा इतना सब? नैसर्गिक कविता को प्रमाणपत्रकी जरूरत नहीं है, उसका अवतरण ही इस बात का प्रमाण है कि वह कविता है, उसका आपात प्रस्फुरण उसमें स्वयं रसों का समन्वय लेकर आता है।

कविता मात्र कविता है, न वह कठिन है और न ही आसान। उसे जिस रूप में आना था वह आ चुकी। वह स्वयं अपने प्रकाशन का मुहूर्त लेकर आती है, उसे फिक्र नहीं कि कौन उसकी प्रशंसा करेगा? उस कविता से जिसे रसास्वादन लेना है ले लेगा, जिस हृदय को आन्दोलित होना है, हो जायेगा।

कविता जिस हृदय में उतरती है, वह हृदय धन्य है, जिस जिह्वा से फूटती है, वह जिह्वा धन्य है और जिस युग में पदार्पण करती है वह युग धन्य है। कवि स्वागत करना चाहता है तमाम कवियों का और सभी कवियों की रचनाओं का आस्वाद लेकर स्वयं को आह्लादित अनुभव करता है।

कवि को नहीं पता कि किस घड़ी कविता उतरेगी उसके हृदय में, कवि धैर्य से प्रतीक्षा करता है रचना के अगले चरण के आगमन की या नयी कविता के फूटने की। उसे लय-तुक मिलाने के लिए माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है । कविता उतरने वाली है, और कवि की कलम प्रतीक्षा में है। यदि यह अनुभव नहीं आपको तो आप कवि हैं नहीं, बल्कि कवि बने हैं। कवि बना थोड़े ही जाता है।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर

(निबंध-- " काव्य-कसौटी" से )

Monday, November 14, 2016

" เค•เคฒ เค…เคš्เค›ा เคญी เคนो เคธเค•เคคा เคนै "

कल अच्छा भी हो सकता है
जीवन की बहुरंगी धारा,
कठिन काल की दुर्धर कारा।
परिवर्तन चक्रीय प्रकृति का,
कल तो कुछ भी हो सकता है, कल अच्छा भी हो सकता है।।१।।

दुनिया में अन्याय देखकर,
औ अपनी गति सहज पेखकर,
मेहनत से क्यों घबराते हो,
फल अच्छा भी हो सकता है,
कल अच्छा भी हो सकता है।।२।।

प्रेम परीक्षा में हो असफल,
क्यों खोते हो मन का संबल?
कितने भी दिल टूट चुके हों,
प्रेम बीज तू बो सकता है, कल भी अच्छा हो सकता है।।३।।

लाख-लाख टूटीं आशाऐं,
घायल हुईं कई इच्छाऐं,
तुमसे छल जितना भी हो ले,
तू तो निश्चल हो सकता है, कल अच्छा भी हो सकता है।।४।।

सत्यवीर खुद संभलो कितना,
क्षोभ मिलेगा जग में उतना।
मैले हों चाहे जितने मन,
फिर मन निर्मल हो सकता है, कल अच्छा भी हो सकता है।।५।।

☆ अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक -- स्वर लहरी यह नयी-नयी है )

Thursday, October 27, 2016

* เคเคธी เคฆीเคชाเคตเคฒी เคฎเคจे *


* ऐसी दीपावली मने *

हृदय भरा हो मृदु भावों से, मानस में अनुराग बने।
ऐसी दीपावली मने।।१।।

अविरल निस्पृहता ही घृत हो,
सहज यत्न की ज्योति जले।
वीतरागता की बाती हो,
नित प्रसन्नता राशि फले।

सद्गुण दीपक बनें घने।।२।।

उठें हृदय से तेज भाव जो,
कर्म-वचन से मुखरित हों।
प्रेय प्रकट हो सहज टेक पर,
श्रेय कर्म में रत नित हो।

वज्र बने आह्लाद सनातन, मुदिता, दुख पर आज तने।।३।।

हृत्तन्त्री में राग स्नेह का उठे,
कि मानस मधुरिम हो।
गतिमयता में प्रीति सहज हो,
पथ ज्योतित हो, या तम हो।

पथझड़ में मधुमास सरीखा, द्वंद्वहीन आह्लाद बने।।४।।

'सत्यवीर' उत्सव सार्थक हैं,
जब मानस आह्लाद गहे।
हृदय जगत की जड़ता टूटे,
नवल राग की धार बहे।

जागृति दीप जलें ऐसे कि, पुन: तिमिर में पग न सने।।५।।
>>
अशोक सिंह सत्यवीर
(गीत संग्रह - स्वर लहरी यह नयी-नयी है )

Sunday, October 9, 2016

* เคธเคฌ เคงเคฐ्เคฎों เค•ा เคฒเค•्เคท्เคฏ เคเค• เคนै *

ऊँच -नीच की भेद दृष्टि ले,
धार्मिक जिज्ञाशा त्रुटि मय है।
मूलधर्म उद्भव के पल से,
रूप बदलता क्या विस्मय है! ।।१।।

गति बदली विश्वास भाव भी,
रहे बदलता यह मानव ।
सभ्य भाव के परिशोधन में
जाने क्या क्या है संभव।।२।।

सब धर्मों का एक लक्ष्य है,
मानव धर्म जिसे हम कहते ।
यही रहा आधार सभी का,
जिसमें सत्साधक नित बहते ।।३।।

नाम भिन्न जो भिन्न धर्म के,
उसी लक्ष्यहित मार्ग मात्र हैं।
किसी एक पर चल पाते हैं,
एक वस्तु, जो भी सुपात्र हैं।।४।।

जिनाराधना,  शिवाराधना,
दोनों के हैं लक्ष्य समान।
सत्य और शिव सुंदर का,
स्थापन है, कुछ नहीं अमान ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'

('मृणालिनी' महाकाव्य - सर्ग ९ से)

Friday, October 7, 2016

*เคšเคฐเคฃ เคชเคก़ूँ เคนे เคฎाเคค เคคुเคฎ्เคนाเคฐे!*

चरण पड़ूँ हे मात तुम्हारे!

भवप्रीता, कल्याणी माँ के शरण शीघ्र मन जा रे!
अगणित रूप नाम हैं अगणित अगणित रंग तुम्हारे!
कलुष रूप दानव निशुम्भ अरु, अति कराल महिषासुर मारे।
तुम्हीं सारदा, ब्रह्मचारिणी, कण-कण बसती माँ रे!
कण-कण है प्रतिरूप तुम्हारा, हम हैं सहारे।
जब भूला तेरे स्वरूप को, जीवन-तत्व बहा रे!
तृष्णा, श्रद्धा,रौद्र रूप तू, सत-चित-आनन्द माँ रे!
सत्यवीर है शरण तुम्हारे शक्ति उसे दे माँ रे!

अशोक सिंह सत्यवीर
(भक्ति काव्य - दुर्गाम्बरी से)

Wednesday, October 5, 2016

* เคคू เคนी เคฎाँ เค•ाเคฒी เคนै *

*तू ही माँ काली है*

अवनी से अम्बर तक तेरी प्रभा निराली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।१।।

जग की भ्रामक रँगरेली में, हम फँस जाते हैं;
अमृत तजकर मूरखजन कीचड़ ले आते हैं;
है चमक-दमक ही जग में, अन्दर से खाली हैं ।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।२।।

हम राग-द्वेष में डूबे, तुझको विस्मृत करते हैं;
तेरा पद तजकर हम धन के पीछे मरते हैं;
हा! कामधेनु को लौटाकर, बस सारमेय पाली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।३।।

तृष्णा, मत्सर, अघशाली, हम प्रतिपल रोते हैं;
माँ! यह कैसी माया है ?, हम क्यों विवेक खोते हैं ?
हम नन्हें-नन्हें पौधों की, माँ! तू ही माली है।
तू माता गौरी है, तू ही माँ काली है।।४।।

अगणित भुजवाली माता, लक्ष्मी, गौरी, गायत्री;
तू ही तृष्णा, श्रद्धा है, तू मुदिता, करुणा, मैत्री;
तू अद्वितीय तेजोमय. अहा! कैसी लाली है!
तू अम्बे साध्वी है, तू ही माँ काली है।।५।।

दुष्कृत का दुष्फल पाकरके हम नहीं सुधरते हैं;
सत को देते हैं त्याग, व कल्मष को अनुसरते हैं;
जग के सारे प्रतीक तू हैं, तू शेरावाली है।
तू ज्ञेया-अज्ञेया है, तू ही माँ काली है।।६।।

यह बालक, तव दर्शन का भूखा है, प्यासा है;
मैं कहने में अक्षम हूँ "क्या मम प्रत्याशा हैं ?"
निज हृत में मैंने माँ अब तेरी मूर्ति बसा ली है।
तू ही साध्वी सीता है, तू ही माँ काली है।।७।।

अशोक सिंह सत्यवीर
{भक्ति काव्य -'दुर्गाम्बरी' से }

Tuesday, September 20, 2016

* เคœเคฏเคคि เคชเคฐ्เคต *

* जयति- पर्व *

कहलाना हो यदि वीर,
काल को क्रुद्ध करो।
दुर्धर बाधाओं से,
प्रवीर! तुम युद्ध करो।।१।।

चीरो दुर्गमपथ-वक्ष,
अनोखे बुद्ध बनो।
निर्भय, निरपेक्ष, उदार,
शीघ्र सद्बुद्ध बनो।।२।।

पद्मा की लहरों में खोजो,
खोजो कवियों की वाणी में।
तुम अपनी पावन शक्ति निहारो,
जग की अमर कहानी में।।३।।

तुम अमियपुत्र, शक्तित अनंत,
कहते अम्बर, थल, दिग्‌-दिगन्त।
तुम अजर, अमर, अक्षर, अजेय,
कहते नभ के तारे अनंत।।४।।

कंकर-कंकर जिसका शंकर,
वह भूमि तुम्हारी माता है।
निश्चल नगपति, ऊर्जस्वित अति,
चिर जय का स्वर दुहराता है।।५।।

गंगा की निर्मल धार यहीं,
यमुना की श्यामलता अथाह।
हे वीरपुत्र! विक्रम वंशज!,
तुममें में हो केवल एक चाह।।६।।

बढ़ते जाओ- बढ़ते जाओ!
बाधाओं को भयभीत करो।
दुर्गमता भी हो विवश,
अहर्निश संकट में भी विजय वरो।।७।।

प्रस्तर को धूल बना, सत्वर-
शत बार स्वप्न साकार करो।
निर्भय बन बढ़ो! नियति के-
शुभ आशीषों को स्वीकार करो।।८।।

पा जाओ निश्चित लक्ष्य,
न पौरुष का, किञ्चित अपमान करो।
तैयार रहो प्रतिक्षण, आवश्यक हो तो-
सहर्ष विषपान करो।।९।।

पर, हार न मानो हे प्रवीर!
अनुपम जय-शर संधान करो।
हे देवपुत्र! स्तन्य-लाज रखकर,
माँ का सम्मान करो।।१०।।

हे अमर प्रतीची, प्राची दिक्‌!
उत्तर, दक्षिण, कुछ शान करो।
है अमृतपुत्र का 'जयति- पर्व',
कर तूर्यनाद, जयगान करो।।११।।

रचयिता: अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य- संग्रह: "यह मस्तक है कुछ गर्व भरा"

प्रकाशन-तिथि: १३ अगस्त सन् २०००

Friday, September 16, 2016

เคฎृเคฃाเคฒिเคจी (เคธเคฐ्เค— -เฅง)

मृणालिनी

सर्ग एक
खगकुल के कलरव से गुंजित,
नभ ने जब मुस्कान विखेरी।
प्रात: की अरुणाम रश्मियों,
में नव आशा हुयी घनेरी।।१।।

शीतल मधु पवमान अचम्भित,
यह कैसी सुगंधि आपात?
दैवकृपा की मधु अनहोनी,
ले आया यह रुचिर प्रभात।।२।।

किसी सुमुखि की अकट कल्पना,
अथवा दिव्य मनुज का प्यार।
अगणित पुण्यपुंज का फल है,
अथवा युग की प्रकट पुकार।।३।।

ललनाओं की बलि में संचित,
है विप्लव की चिनगारी।
अथवा अबलाओं का बल है,
जिस पर हों हम बलिहारी।।४।।

शक्ति आदि है वरणीया है,
पूज्या है, है सुकुमारी।
जिसके जाये हैं हम सब ही,
जो कहलाती है नारी।।५।।

श्रद्धा कहो उसे या अबला,
किन्तु जन्मदायी है कौन?
उसी शक्ति के प्रखर तेज में,
सभी दिशाऐं होतीं मौन।।५।।

दुर्धर अंक मेटने आयी,
वही आज बन सुकुमारी।
दिव्य प्रभा ले हुयी अवतरित,
भू पर नन्हीं शिशु प्यारी।।७।।

कमलनाल सी मृदुता मोहक,
उगी पंक में पंकजहित।
माँ की स्नेहसुधा अभिसिंचित,
पिता मुग्ध हो, रहे चकित।।८।।

माँ ने कहा 'मृणाल' आ गयी,
कह 'मृणालिनी' पिता हँसे।
उठी खिलखिला तब नन्हीं शिशु,
मानों मुक्तादल विहँसे।।९।।

भाग्य सृजन हित दुहिता आयी,
'लक्ष्मी आयीं' स्वर गूँजा।
लो! चूको मत! आया अवसर,
ले लो पुष्प करो पूजा।।१०।।

(महाकाव्य मृणालिनी
सर्ग १)
अशोक सिंह सत्यवीर

Tuesday, September 13, 2016

☆ เคนिंเคฆी เคฆिเคตเคธ 14 เคธिเคคเคฎ्เคฌเคฐ เคชเคฐ เคตिเคถेเคท ☆

** เคนिเคจ्เคฆी เคฆिเคตเคธ 14 เคธिเคคเคฎ्เคฌเคฐ เคชเคฐ เคตिเคถेเคท**

เคœिเคธ เคธ्เคตเคฐ เคฎें เคฎुเค–เคฐिเคค เคนो เค—ूँเคœी, เคฌเคฒिเคฆाเคจी เค…เคญिเคฒाเคทा।
เคฐाเคท्เคŸ्เคฐ- เคšेเคคเคจा เค‰เคจ्เคจाเคฏเค•, เค‡เค• เค…เคจुเคชเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เคญाเคทा।।เฅง।।

เคจिเคœ เคญाเคทा เค‰เคจ्เคจเคคि เค•ा เค•ाเคฐเค•, เคธเคนเคœ เคต्เคฏเค•्เคค เคนों เคฎเคจ เค•े เคญाเคต।
เคเค• เค•เคฐे เคœเคจ-เคœเคจ เค•ो, เคฏเคฆि เคนो เค…เคชเคจी เคญाเคทा เคฎें เคตเคฐ्เคคाเคต।
เคญाเคฐเคคेเคจ्เคฆु เค•ी เคฏเคค्เคจ-เคฒेเค–เคจी เคจे,เคฅा เคœिเคธे เคคเคฐाเคถा।
เคฐाเคท्เคŸ्เคฐ-เคšेเคคเคจा เค‰เคจ्เคจाเคฏเค•, เค‡เค• เค…เคจुเคชเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เคญाเคทा।।เฅจ।।

เคญाเคฐเคค เค•ी เค†เคค्เคฎा เคนोเคฐी เคนै, เคงเคจिเคฏा เคนै เคธเคš्เคšाเคˆ।
เค‡เคธ เค…ंเค—्เคฐेเคœी เคšเคฎเค•-เคฆเคฎเค• เคฎें, เคฏเคน เคฎเคค เคญूเคฒो เคญाเคˆ।
เคช्เคฐेเคฎเคšเคจ्เคฆ เค•ी เค‰เค ी เค•เคฒเคฎ, เคšिเคฒ्เคฒाเคฏा เคญाเคฐเคค เคช्เคฏाเคธा।
เคฐाเคท्เคŸ्เคฐ-เคšेเคคเคจा เค‰เคจ्เคจाเคฏเค•, เค‡เค• เค…เคจुเคชเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เคญाเคทा।।เฅฉ।।

เคชाเคตเคจ-เคธंเคธ्เค•ृเคคि เค•ी เคตाเคฐिเคถ, เคธंเคธ्เค•ृเคค เค•ी เคฒाเคฏเค• เคœाเคฏा।
เคญाเคฐเคค เค•ा เค‡เคคिเคนाเคธ เคตिเคชुเคฒ, เคœिเคธเค•े เค†ँเคšเคฒ เคฎें เค†เคฏा।
เคจเค—เคฐ-เคตเคงू เคชเคฆ เคธे เค…เคญिเคนिเคค, เคธเคฎ्เคฎाเคจिเคค เคนो เคฐเค•्เค•ाเคถा।
เคฐाเคท्เคŸ्เคฐ-เคšेเคคเคจा เค‰เคจ्เคจाเคฏเค•, เค‡เค• เค…เคจुเคชเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เคญाเคทा।।เฅช।।

เค‡เคธ เคธ्เคตเคคเคจ्เคค्เคฐ-เคญाเคฐเคค เค•ी เค—เคฐिเคฎा, เคนै เคนเคฎ เคธเคฌเค•ी เคฏเคน เค†เคตाเคœ।
เค†เค“ เคถुเคฆ्เคง-เคนृเคฆเคฏ เคธे เค—ाเคฏें, เค‡เคธ เคนिเคจ्เคฆी เค•ी เคฎเคนिเคฎा เค†เคœ।
เค…เคชเคจाเค“ เคนिเคจ्เคฆी เค•ो, เค›ोเคก़ो เคฎเคจ เค•ी เคต्เคฏเคฐ्เคฅ เคฆुเคฐाเคถा।
เคฐाเคท्เคŸ्เคฐ-เคšेเคคเคจा เค‰เคจ्เคจाเคฏเค•, เค‡เค• เค…เคจुเคชเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เคญाเคทा।।เฅซ।।

เคฐเคšเคฏिเคคा- เค…เคถोเค• เคธिंเคน 'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ' {เคฎूเคฒ เค•เคตिเคคा เคธंเค—्เคฐเคน- เคธ्เคตเคฐ เคฒเคนเคฐी เคฏเคน เคจเคฏी เคจเคฏी เคนै "}

Monday, September 5, 2016

* เคจเคฏी เคธुเคฌเคน เคฆे เคคเคฐुเคฃाเคˆ *

भोर हुई, संसार जग गया,
नभ में खग स्वर दिया सुनाई।
बुला रहा मधुवन मस्ती में,
नयी सुबह रचती तरुणाई।।१।।

अरुण प्रात के मधु संगम से,
सुमन स्नेह से अब मुस्काये।
'सत्यवीर' आह्वान अनूठा,
सरल हृदय को नित प्रति भाये।।२।।

सन्निपात उद्गार फूटते,
किन्तु तृषा कब हो परिभाषित?
स्वप्न श्रृंखला भंग हुई,
पर मानस में कुछ रिक्ति अभाषित।।३।।

ऋद्धि-सिद्धियाँ बरस पड़ीं अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक नव्य अनुभूति मुखर हो,
करे हृदय में नये प्रयोग।।४।।

लो! अब सावधान है मानस,
टेक रचे मादक संन्यास।
इस गति पर वैकुण्ठ पुकारे,
लहरें करें वक्र उपहास।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर

Wednesday, August 17, 2016

* เคฐเค•्เคทाเคฌเคจ्เคงเคจ: เคธाเคค्เคตिเค• เคต्เคฐเคค เค•ा เคธंเค•เคฒ्เคช เคฆिเคตเคธ *


रक्षाबन्धन: सात्विक व्रत का संकल्प दिवस

रक्षाबन्धन कर्तव्य नहीं,
सात्विक-व्रत का संकल्प दिवस है।
रक्षाबन्धन है पवित्रता का पर्व,
एक सात्विक साहस है।
सत-व्रत की देवी को, अपना सर्वस्व समर्पण है।
व्रत की याद दिलाने आया यह रक्षाबन्धन है।।१।।

जब कर्मवती ने निज रक्षाहित,
वीर हुमायूँ को इसकी सौगन्ध दिलायी।
धर्म से, व्रत से हुआ आबद्ध जब वह,
बहन रक्षा के लिए, निज प्राण की बाजी लगायी।
त्योहारों में श्रेष्ठ सुमति का यह नन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।२।।

सात्विक व्रत के इस महापर्व में,
होता बन्धु-भगिनि का सात्विक अभिसार।
राखी बाँध पवित्र बनाती,
अब होवे रक्षाव्रत साकार।
सभी अपशकुन नष्ट हो रहे, देखो! उनका ही क्रन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।३।।

देखो! पूरब के अम्बर में,
वह धूमकेतु दिखता कराल।
सात्विकता पर संकट आया,
वह निकट आ रहा भीषण काल।
युग की पुकार सुन बोलो अब, 'आवश्यक रक्षाबन्धन है'।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।४।।

जागो! निज व्रत को याद करो!
तुम डरो नहीं, हाँ निर्भय हो।
उठ जाओ! अरि पर टूट पड़ो,
तम पर सात्विकता की जय हो।
काली बदली के भेदक, सत रवि का बन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।५।।

कर महायुद्ध उस दुर्विनीत से,
सात्विकता की दिग्विजय करो!
उठ जाओ शीघ्र! आवश्यक हो,
तो कलम त्याग असि शीघ्र वरो!
है जग की सब सम्पदा शून्य, तेरा व्रत ही सच्चा धन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।६।।

अशोक सिंह सत्यवीर{प्रकाशन: वर्ष 2005, पत्र-'श्रमिक-मित्र', सहारनपुर से साभार}

Wednesday, August 3, 2016

เคฎृเคฃाเคฒिเคจी (เคธเคฐ्เค—-เฅช)

क्रान्तिविहित सिद्धांत अपरिचित,
क्यों स्थापित पत टकराऐं?
किन्तु भेद बन जाय बली जब,
तब नव आहट हमको भाऐ।।१।।

समय-समय पर आवश्यकतावश,
विनियम होते हैं निर्मित।
तो यदि आवश्यक है तो उनमें,
संशोधन कहलाते समुचित।।२।।

प्रज्ञा का आघोष प्रकल्पित,
गुरुता-लघुता भी नि:सार।
भेदसृजक अनिवार प्रतिष्ठा,
किन्तु सृजित हो बारंबार।।३।।

बड़े मनीषी हुए विश्व में,
किन्तु नहीं आडम्बर हारा।
इसीलिए कर्तव्य निभाकर,
देह तजा कुछ भी न निहारा।।
४।।

पूर्ण अवैज्ञानिक कुछ बातें,
प्रचलित, हैं घातें बन भारी।
जिन्हें प्रचारित हमीं कर रहे,
समता मर्यादा पर हारी।।५।।

••••○○○○••••••○○○○○•••

स्थापित अभिलाषाओं का
पुनर्विवेचन क्यों न करें?
नये स्वप्न की नव मीमांशाहित,
कुछ तो अधिकार वरें।।६।।

क्रियाशील मस्तिष्क करे कब-
नव रचना; आधार पुराने।
रीति-नीति की पद्धति आदिम,
कब तक होंगे वही बहाने?।।७।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(महाकाव्य-"मृणालिनी", सर्ग-४ के कुछ पंक्तियाँ )

Sunday, July 24, 2016

เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!

¤ เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा! ¤
เคœैเคธเคจ เค†เค‡ เคšुเคจाเคต เค•เคฝ เคฎौเค•ा, เคฒเค—े เค•เคฐเคจ เคธเคฌ เคคा-เคคा เคฅैเคฏा।
เคเค•เค‡ เคฌाเคค เคœुเคฌाเคจ เคšเฅी เคฌा, "เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा"॥1॥

เคธเคฌเค•ा เคฎौเค•ा เคฆिเคนा,
เคเค• เค ो เคฎौเค•ा เคฆเค‡เคฆा เคนเคฎเคนूँ เค•ा।
เคœीเคค เคœाเคฌ เคคो เคคुเคฎเคนूँ เคœเคจเคฌा,
เค•ुเค› เค†เคตเคฅเคฝ เคนเคฎเคนूँ เค•ा।
เค–เคฐเคš- เคฌเคฐเคš เค•ा เคšिเคจ्เคคा เคจाเคนीं, เคชाเคฐ เคฒเค—ा เคฆा เคนเคฎเคฐी เคจैเคฏा।
เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!2॥

เคญ्เคฐเคท्เคŸाเคšाเคฐ เคฎिเคŸाเค‰เคฌै เค”,
เคชเค•्เค•ी เคธเฅœเค• เคฌเคจเค‰เคฌै เคนเคฎ।
เค–ाเคตै เค•ा เคธाเคฎाเคจ เคธเคฌै เค”,
เคธเคธ्เคคी เค—ैเคธ เค•เคฐเค‰เคฌै เคนเคฎ।
เคนเคฎ เคนैं เค…เคชเคจी เคฌाเคค เค•เคฝ เคชเค•्เค•ा, เค เคนเคฐे เคจेเคคเคจ เค…เค‰เคฐ, เค—เคตैเคฏा।
เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!3॥

เคฆेเค–ौ เคฆेเคถ เคฒूเคŸि เค•ै เคจेเคคा,
เค•ेเคตเคฒ เค†เคชเคจ เค˜เคฐ เคญเคฐि เคฒेเคนैं।
เค…เคš्เค›े เคฒोเค—เคจ เค•ा เคœเคฌ เคšुเคจเคฌौ,
เคคเคฌเคนीं เคคौ เค•เค›ु เคคुเคฎเค•ा เคฆेเคนैं।
เคœाเคคि, เคงเคฐเคฎ เคชเคฐ เค•เคฌ เคคเค• เคฒเฅœเคฌा, เคคुเคฎ เคนौ เค†เคชเคจ เคจाเคต เค–ेเคตैเคฏा।
เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!4॥

เคคुเคฎเค•ा เคนเคฎ เค•ेเคคเคจा เคธเคฎเคाเคˆ?
เคฎौเค•ा เคชै เคคुเคฎ เคฌเคฆเคฒ เคœाเคค เคนौ।
เค•ेเคคเคจा เค…เคฌ เคคเค• เคšुเคจाเคต เคฆेเค–्เคฏो,
เคคเคฌเคนुँ เค†ँเค– เคจ เค…เคฌเคนुँ เค–ुเคฒเคค เคนौ।
เคฐाเคœเคจीเคคि เค—ंเคฆी เค•เคนि เคญเค—िเคฌा, เคจेเคคเคจ เค•เคฐिเคนैं เค›ैเคฏाँ- เค›ैเคฏाँ।
เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!5॥

เคคोเคนเคฐे เคฌเคฒ เคชे เคนเคฎ เค…เคฌ เคฒเฅœिเคฌै,
เคธोเคšि- เคธเคฎเคि เค•े เคฌเคŸเคจ เคฆเคฌाเคฏा।
เค…เคฌ เคคो เค•ौเคจो เคถिเค•ाเคฏเคค เคจाเคนीं,
เค…เคฌ เคคो เค ीเค• เคช्เคฐเคค्เคฏाเคถी เคชाเคฏा?
'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ' เคฎौเค•ा เคจा เคšूเค•ो, เคคुเคฎ เคนौ เค†เคชเคจ เคฒाเคœ เคฌเคšैเคฏा।
เคนे เคนो เคšाเคšा! เคนे เคนो เคญैเคฏा!6॥

เค…เคถोเค• เคธिंเคน 'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ'{ เค•ाเคต्เคฏ เคธंเค—्เคฐเคน: 'เค•ुเค› เคŸेเคธू, เคœो เคจเคœเคฐ เคจ เค†เคฏे!'}

Tuesday, July 12, 2016

** เคฎैं เคธเคค्เคฏ เคนूँ **

मैं सत्य हूँ ।
हूँ ज्ञात उसको, जो सदा, खोजी रहा ज्ञानी;
मैं सत्य हूँ।।१।।

आद्यंत मम किञ्चित न कोई जानता है, सोच ले प्राणी;
हूँ अमित, उत्कट सत्य, रे! निस्सीम अभिमानी;
त्रेता हो, सत, द्वापर, या कलि की सभ्यता कानी;
वसुधा रहे, जाये, कि शशि वा दिवस का मानी;
रे! भ्रमित, मैं हूँ अमिट, सुन ले आज तू मानी;
मैं सत्य हूँ।।२।।

मैं अमर, अनादि, अमिट, अमृत फीका पड़ता है मम समक्ष;
रे!मानव तज अपनी लिप्सा, मैं मर जाऊँ,मत बना लक्ष्य;
अनगिनत बार फूटे घट, डूबी नावें, आये पतझड़ प्रत्यक्ष;
पर पनघट, तट, उपवन न मिटे, हूँ वैसा उत्कट अमर यक्ष।
है अमृतवत्, तेजस मेरी गरिमा की कहानी;
मैं सत्य हूँ ।।२।।

जो मेरे हित की बात छोड़, दुरहित करने पर तुल जाता,
तो याद रहे, वह निज कुल संग अस्तित्वहीन है हो जाता।
पाकर समस्त साधन, अंतस संतुष्ट नहीं है हो पाता;
जब भिड़ने की दुस्साहस की, कौरवदल मरे सकल भ्राता।
मैं दया हूँ, विधि हूँ, तथा हूँ धर्म का मानी;
मैं सत्य हूँ।।३।।

अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक - "कुछ कणिकाऐं")

[रचनाकाल- अगस्त 1999]

Thursday, July 7, 2016

* People are the wealth of this world *

“People are the wealth of this world.” https://medium.com/@ashoksinghsatyaveer/people-are-the-wealth-of-this-world-35c666961c04

Sunday, June 12, 2016

เคธเคฌ เคงเคฐ्เคฎों เค•ा เคเค• เคฒเค•्เคท्เคฏ เคนै

ऊँच -नीच की भेद दृष्टि ले,
धार्मिक जिज्ञाशा त्रुटि मय है।
मूलधर्म उद्भव के पल से,
रूप बदलता क्या विस्मय है! ।।१।।

गति बदली विश्वास भाव भी,
रहे बदलता यह मानव ।
सभ्य भाव के परिशोधन में
जाने क्या क्या है संभव।।२।।

सब धर्मों का एक लक्ष्य है,
मानव धर्म जिसे हम कहते ।
यही रहा आधार सभी का,
जिसमें सत्साधक नित बहते ।।३।।

नाम भिन्न जो भिन्न धर्म के,
उसी लक्ष्यहित मार्ग मात्र हैं।
किसी एक पर चल पाते हैं,
एक वस्तु, जो भी सुपात्र हैं।।४।।

जिनाराधना,  शिवाराधना,
दोनों के हैं लक्ष्य समान।
सत्य और शिव सुंदर का,
स्थापन है, कुछ नहीं अमान ।।५।।

(मृणालिनी महाकाव्य - सर्ग ९ से)

Tuesday, June 7, 2016

เคตिเคฐเคน เคฒिเค เค…เคฌ เคนृเคฆเคฏ เคชुเค•ाเคฐे


* विरह लिए अब हृदय पुकारे *

मादक लघु आघात हृदय पर,
रह-रहकर अब शांति बुहारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे।।१।।

प्रिया मिली जब, आशा उपजी,
सुख शायद जीवन में आये।
कुम्हलाया जो हृदय, पुन: से-
उछले मानों नव निधि पाये।

किन्तु हाथ से कली खो गयी, फूल कहाँ कब हाथ लगा रे!
बिछुड़न का संताप अनूठा, बिरह लिए अब हृदय पुकारे।।२।।

दुनिया की अवरोधी धारा,
मर्यादा का अप्रिय बंधन।
तोड़ नहीं पाते जब प्रेमी,
भरे हृदय में घुटन सघन।

बली नियति पर सौंप, शांत हों, या स्वघात के बहें पनारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे ।।३।।

क्रांति घटित होगी किस तट पर,
जबकि प्रेम के घाती सब?
जाने कब आयेगा वह युग,
प्रेमीहित भी होंगे उत्सव?

कब बसंत के पल आयेंगे, रुक जायें आँखों के धारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे।।४।।

बदल रहीं सब परिभाषाऐं,
'सत्यवीर' दिख रहा सुधाकर।
प्रेम बना वरदान, सिद्ध है,
हृदयों के अब बदले सब स्वर।

विरह मिलन का रूप दूसरा, प्रेमसिद्धि में सब कुछ हारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(पुस्तक - लो! आखिर आया मधुमास )

Tuesday, May 17, 2016

๐ŸŒด"เค‡เค• เคชाเคตเคธ เค‹เคคुเค“ं เคชเคฐ เคญाเคฐी " เค•े เคฒिเค เคถुเคญ เค•ाเคฎเคจा ๐ŸŒด


เคถुเคญเค•ाเคฎเคจाเคं!!

เคนिเคจ्เคฆी- เคธाเคนिเคค्เคฏ เค•े เค—ीเคค เคฒेเค–เคจ เคœเค—เคค เคฎें เคธ्เคฅाเคชिเคค เคถ्เคฐी เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เคœी เคชुเคจ: เค›ाเคฏाเคตाเคฆ เค”เคฐ เคช्เคฐเค—เคคिเคตाเคฆ เค•े เคจเคฏे เคธंเคฏोเคœเคจ เค•ो เคช्เคฐเคธ्เคคुเคค เค•เคฐ เคฐเคนे เคนैं । เค‡เคจเค•ी เคญाเคทा-เคถเคฌ्เคฆाเคตเคฒी, เคญाเคต-เคฐूเคชाเคฏเคจ เค”เคฐ เค…เคจुเคญूเคคि เค•ी เคคเคฐเคฒเคคा เคคเคฅा เคธเค˜เคจเคคा เคฆेเค–เคคे เคนी เคฌเคจเคคी เคนै । เค•ुเค›-เค•ुเค› เค…เคชเคจे เค•ो เค…เคตเค—ुเคฃ्เค िเคค เคฐเค–เคคे เคนुเค เคถ्เคฐी เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เคœी เค•ी เคฏเคน เค•ाเคต्เคฏเค•ृเคคि เค•ुเค› เคฌिเคฒเคฎ्เคฌ เคธे เคธเคนृเคฆเคฏों เค•े เคฌीเคš เคช्เคฐเคธ्เคคुเคค เคนो เคฐเคนी เคนै। เค†เคถा เคนै เค•ि เคฐเคธाเคธ्เคตाเคฆเคจ เค”เคฐ เค…เคคिเคธूเค•्เคท्เคฎ เคญाเคต-เคธเคฐिเคคाเค“ं เคฎें เคชाเค เค•เค—เคฃ เค…เคญिเคทिเค•्เคค เคนो เคธเค•ेंเค—े । เคฎेเคฐी เค“เคฐ เคธे เคถ्เคฐी เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เคœी เค•ो เคฏเคถเคธ्เคตी เค”เคฐ เคฌเคนुเคชाเค ्เคฏ เคนोเคจे เค•ी เคถुเคญเค•ाเคฎเคจा เคนै।

เคกा เคถाเคจ्เคคिเค•ुเคฎाเคฐ เคกเคฌเคฐाเคฒ
(เคเคธोเคธिเคเคŸ เคช्เคฐोเคซेเคธเคฐ เคเคตं เคตिเคญाเค—ाเคง्เคฏเค•्เคท-เคนिเคจ्เคฆी เคตिเคญाเค—)
เคฐाเคœเค•ीเคฏ เคธ्เคจाเคคเค•ोเคค्เคคเคฐ เคฎเคนाเคตिเคฆ्เคฏाเคฒเคฏ เคฎเคนเคฎूเคฆाเคฌाเคฆ, เคธीเคคाเคชुเคฐ
27/04/2016

๐ŸŒฑเคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เค•ा เคช्เคฐेเคฎिเคฒ เคธเคค्เคฏाเคชเคจ๐ŸŒฑ


"เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เค•ा เคช्เคฐेเคฎिเคฒ เคธเคค्เคฏाเคชเคจ"

'เค‡เค• เคชाเคตเคธ เค‹เคคुเค“ं เคชเคฐ เคญाเคฐी' เค•ाเคต्เคฏเค•ृเคคि เคฏुเคตाเค•เคตि เคถ्เคฐी เค…เคถोเค• เคธिंเคน 'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ' เค•े เคญाเคตोเคฆ्เค—ाเคฐ เค•ी เค…เคจुเคชเคฎ เคญेंเคŸ เคนै । เค‡เคธเคฎें เคช्เคฐเคธाเคฆ, เคฌเคš्เคšเคจ เค”เคฐ เคจเคฐेंเคฆ्เคฐ เคถเคฐ्เคฎा เค•ी เคญाเคตเคญूเคฎि เค•ो เคธ्เคชเคฐ्เคถ เค•เคฐเคจे เค•ा เคช्เคฐเคฏाเคธ เค•िเคฏा เค—เคฏा เคนै। เคช्เคฐเค•ृเคคि, เคช्เคฐेเคฎ, เคธौंเคฆเคฐ्เคฏ, เคตिเคฐเคน เค†เคฆि เค›ाเคฏाเคตाเคฆी เค”เคฐ เคธ्เคตเคš्เค›เคจ्เคฆเคคाเคตाเคฆी เคตिเคทเคฏ เคฐเคšเคจाเค•ाเคฐ เค•ो เค‰เคจเค•ी เคฐुเคšि เคเคตं เคธंเคธ्เค•ाเคฐ เคธे เคชเคฐिเคšเคฏ เค•เคฐाเคคे เคนैं ।

เคถ्เคฐी เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ เค•ी เค•เคตिเคคा เค‰เคฐ เค•ी เค—เคนเคฐाเคˆ เคธे เค‰เคชเคœी เคนै; เคตिเคฐเคน-เคต्เคฏเคฅिเคค เคฎเคจ เค…เคงीเคฐเคคा เคธे เค•เคน เค‰เค เคคा เคนै-

" เคธ्เคตเคค: เคธ्เคซुเคฐिเคค เคช्เคฐेเคฎ-เคถिเค–ा เคฎें เคฆเค—्เคง เคนुเค เค‰เคฐ-เคชाเคคเค•-เคธंเค•ुเคฒ।"

เค•เคตि เค•ा เคช्เคฐेเคฎ เคเคจ्เคฆ्เคฐिเคฏ เคจเคนीं เคนै; เคตเคน เคธเคค्เคตोเคฆ्เคฐेเค• เคธे เคชूเคฐ्เคฃ เคนै, เคถुเคฆ्เคง เคคเคชाเคฏे เค–เคฐे เคธोเคจे เค•ी เคคเคฐเคน-

"เคช्เคฐेเคฎ-เคคिเคคीเค•्เคทा เค…เคจुเคชเคฎ เคธाเคงเคจ, เคนृเคฆเคฏ เค–เคฐा เคธोเคจा เคฌเคจ เคœाเคฏे"; "เคชीเคก़ा เค•ा เค…เคคिเคฐेเค• เคคเคญी เคนै, เคตिเคฐเคนी เคœเคฌ เคตिเคฆेเคน เคฌเคจ เคœाเคฏे।"

เค‡เคธ เค—ीเคค เคธंเค—्เคฐเคน เคฎें เคฎिเคฒเคจ เค•ी เคคुเคฒเคจा เคฎें เคตिเคฐเคน เค•े เค…เคงिเค• เค—ीเคค เคนैं । เค•เคนा เคญी เค—เคฏा เคนै เค•ि เคตिเคฐเคน เคช्เคฐेเคฎ เค•ी เค•เคธौเคŸी เคนै। เค•เคฆाเคšिเคค्‌ เค•เคตि 'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ' เค‰เคธी เค•เคธौเคŸी เค•ा เคช्เคฐเคธ्เคคुเคค เค—ीเคค เคธंเค—्เคฐเคน เคฎें เคธเคค्เคฏाเคชเคจ เค•เคฐเคคे เคชाเคฏे เคœाเคคे เคนैं ।

เค‡เค•्เค•ीเคธเคตीं เคธเคฆी เค•े เคคเคฎाเคฎ เคตैเคšाเคฐिเค• เค†เคฏाเคฎों เค•ो เค…เคชเคจे เคช्เคฐेเคฎिเคฒ เคฆाเคฏเคฐे เคฎें เคธเคฎेเคŸเคจे เค•ी เค‰เคฒเคเคจ เคธे เคฆूเคฐ เคช्เคฐเค•ृเคคि เค•ी เค—ोंเคฆ เคฎें เคช्เคฐेเคฎ เค•ी เคฌाँเคธुเคฐी เค•ी เคงुเคจ เค‰เคจ्เคนें เคœ्เคฏाเคฆा เคšैเคจ เคฆेเคคी เคนै เค”เคฐ เคฏเคน เค‰เคจเค•ी เค…เคชเคจी เค•ाเคต्เคฏ-เคธเคฐ्เคœเคจा เค•ी เคธीเคฎा เคญी เคนै । เคซिเคฐ เคญी เค‰เคจเค•ा เคฐเคšเคจाเคค्เคฎเค• เค•เคฆเคฎ เคนिเคจ्เคฆी เค•เคตिเคคा เค•ी เคธ्เคตเคš्เค›เคจ्เคฆเคคाเคตाเคฆी เค•เคตिเคคा เค•ो เคตिเค•ाเคธ เคฆेเคจे เคฎें เคธเค•्เคฐिเคฏ เคฎाเคจा เคœाเคฏेเค—ा

เคกाॅ เคฏोเค—ेเคจ्เคฆ्เคฐ เคช्เคฐเคคाเคช เคธिंเคน
เคช्เคฐोเคซेเคธเคฐ
เคนिเคจ्เคฆी เคตिเคญाเค—
เคฒเค–เคจเคŠ เคตिเคถ्เคตเคตिเคฆ्เคฏाเคฒเคฏ
30/04/16

๐ŸŒบเคฆुเคฐ्เค—ा เคคीเคธिเค•ा๐ŸŒบ

🌲 दुर्गा तीसिका 🌲

🍀दुर्गतिहरणी मात हे! अभय-प्रदायिनि आज।
भक्ति प्रबल अब दीजिए, हे माँ! पूरणकाज॥1॥🍀

🌱घट-घट में जो बसती प्रतिपल,
कण-कण में है अमल प्रसार।
वही सत्य है, इस त्रिभुवन में,
शेष असत है, और असार॥2॥🌱

🌱दु:ख, दारिद्रय, दैन्यता हरती,
बुद्धि, बिमल, पावन जो करती।
उस माँ के हम सभी पुत्र हैं,
और, सुता है यह शुचि धरती॥3॥🌱

🌱जिसकी स्मृति मात्र, शक्ति का-
है करती अद्भुत संचार।
उसके चिन्तन में न लगे जो,
है वह इस धरणी पर भार॥4॥🌱

🌱शक्ति, वीर्य, आयुष्यहीन वे मनुज,
जो, न माँ को भजते हैं।
भ्रमबश कुत्सा गले लगाते,
हृतनिवासिनी को तजते हैं॥5॥🌱

🌱बन्धु उसे मत भूलो किञ्चित,
गावो उसके अद्भुत गान।
वही जनक, माता, भगिनी है,
विद्या, वैभव, सच्चा ज्ञान॥6॥🌱

🌱नदियों में गंगा, शैलों में-
वही शैलपति, बिमल, महान।
विद्याओं में आत्मज्ञान है,
स्थिर, पर विस्मय गतिमान॥7॥🌱

🌱वायु, नीर, द्रुम, और मृत्तिका,
दृश्यमान जो सघन, विरल।
उन सबकी वह अद्भुत जननी,
निराकार, साकार, सरल॥8॥🌱

🌱अम्बु स्वयं में निराकार है,
किन्तु वही बनता है हिम।
वैसे भक्ति द्रवित जब करती,
जाती मूर्तिमान माँ बन॥9॥🌱

🌱सत्व, रजस, तमरूप, अनखमय,
और प्रशान्त, किन्तु अविकार।
क्षरण, पुष्टि द्वय रूप मात के,
उसकी लीला अगम, अपार॥10॥🌱

🌱बंधु आज वन्दन करो, अम्ब करे कल्याण।
वही लक्ष्य हो सभी का, और प्रीति हो बाण॥11॥🌱

🌱सिंह वाहिनी कर कृपा, बुद्धि बिमल हो जाय।
तव चरणों में प्रीति हो, तू कर यही उपाय॥12॥🌱

🌱हे माँ! तेरे रूप अमित हैं,
और अनन्त- अमित तव नाम।
हे अनन्त भावों की जननी!
तुमको मेरा कोटि प्रणाम॥13॥🌱

🌱किस स्वरूप का ध्यान करूँ मैं?
पाऊँ मैं कैसे सद्‌ज्ञान?
समझ न पाता हे जगदम्बे!
कैसे हो मेरा कल्याण? 14॥🌱

🌱राम, कृष्ण, शंकर, गणपति तू,
ईशा, बुद्ध, और अल्लाह।
हे दुर्गा! तू ही प्रसन्नता,
दीन अवस्था में तू आह॥15॥🌱

🌱लोभ, मोह, लज्जा, तृष्णा तू,
तू ही घृणा, द्वेष, आचार।
श्रद्धा, प्रेम, व करुणा, शुचिता,
शक्तिहीनता, शक्तिप्रसार॥16॥🌱

🌱'प्राची' में तू ही 'ऐन्द्री' है,
'आग्नेय' में 'आग्नेया' तू है।
हे! 'वाराही' 'पश्चिम' दिक्‌ में,
और 'नैऋर्त्य' में 'खड्‌गधारिणी'॥17॥🌱

🌱अम्ब 'वारुणी' तू 'पश्चिम' में,
'वायव्य' दिशा में हे 'मृगवाही'!
हे 'कौमारी'! 'उत्तर' दिक्‌ में,
'शूलधारिणी' तू 'ईशान' में ॥18॥ 🌱

🌱और शेष दिक्‌ में रक्षा कर,
प्रतिपल हे माता कल्याणी!
हे माँ! कृपा करो तुम अविरल,
तुम ही 'मूकशीलता', 'वाणी'॥19॥🌱

🌱तेरी इच्छामात्र प्रसवती-
यह अनुपम ब्रह्माण्ड विशाल।
यह हरीतिमामय शुचि धरती,
त्व-ईह की जीवन्त मशाल॥20॥🌱

🌱तव दर्शन हो सतत्‌ ही, दो ऐसा वरदान।
इस जग में भटका बहुत, अब तो दो सद्‌ज्ञान॥21॥🌱

🌱मुझे स्पृहाशून्य बनाकर,
रागहीन कर दे, हे मात!
मेरे हृत में तू बस जा माँ,
आवे चिर, सच्चा सुप्रभात॥22॥🌱

🌱समरसभूत ब्रह्मस्वरूप का,
देती निर्विकल्प जो ज्ञान।
त्रिपुरसुन्दरी, सर्वआत्मिका,
को है मेरा कोटि प्रणाम॥23॥🌱

🌱हे माँ! मैं निरुपाय हूँ, कुटिल, पाप की खान।
अब हूँ तव- पद में पड़ा, कर माँ तू कल्याण॥24॥🌱

🌱कृष्णा, काली, चण्डिका, मन के यातुधान को बध!
दुर्गा! दुर्गति नाश कर, तव सुत रहे अबाध॥25॥🌱

🌱तव-स्मृति आधार बनाकर,
लिख शुचिता का ग्रन्थ विशाल।
तुझमें ही मिल जाये तत्क्षण,
तेरा यह अति अद्भुत लाल॥27॥🌱

🌱अभय रहूँ मैं, मात! अहर्निश,
तू ही मेरा कवच रहे।
जय मम चिर सहचर बन जावे,
मन में ज्ञान-प्रवाह बहे॥28॥🌱

🌱है धरणी आक्रान्त अब, असुर बढ़े उद्भ्रान्त।
प्रकट आज हो मात तुम, और सभी हों शान्त॥29॥🌱

🌱माता की महिमा अमित, अकथ स्वरूप, अपार।
'सत्यवीर' तव-चरण में, झुकता बारम्बार॥30॥🌱

🌹अशोक सिंह 'सत्यवीर' 🌹

☔भक्ति- काव्य संग्रह- 'दुर्गाम्बरी' से☔

{रचनाकाल -फरवरी 2003}