Wednesday, August 3, 2016

मृणालिनी (सर्ग-४)

क्रान्तिविहित सिद्धांत अपरिचित,
क्यों स्थापित पत टकराऐं?
किन्तु भेद बन जाय बली जब,
तब नव आहट हमको भाऐ।।१।।

समय-समय पर आवश्यकतावश,
विनियम होते हैं निर्मित।
तो यदि आवश्यक है तो उनमें,
संशोधन कहलाते समुचित।।२।।

प्रज्ञा का आघोष प्रकल्पित,
गुरुता-लघुता भी नि:सार।
भेदसृजक अनिवार प्रतिष्ठा,
किन्तु सृजित हो बारंबार।।३।।

बड़े मनीषी हुए विश्व में,
किन्तु नहीं आडम्बर हारा।
इसीलिए कर्तव्य निभाकर,
देह तजा कुछ भी न निहारा।।
४।।

पूर्ण अवैज्ञानिक कुछ बातें,
प्रचलित, हैं घातें बन भारी।
जिन्हें प्रचारित हमीं कर रहे,
समता मर्यादा पर हारी।।५।।

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स्थापित अभिलाषाओं का
पुनर्विवेचन क्यों न करें?
नये स्वप्न की नव मीमांशाहित,
कुछ तो अधिकार वरें।।६।।

क्रियाशील मस्तिष्क करे कब-
नव रचना; आधार पुराने।
रीति-नीति की पद्धति आदिम,
कब तक होंगे वही बहाने?।।७।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(महाकाव्य-"मृणालिनी", सर्ग-४ के कुछ पंक्तियाँ )

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