ऊँच -नीच की भेद दृष्टि ले,
धार्मिक जिज्ञाशा त्रुटि मय है।
मूलधर्म उद्भव के पल से,
रूप बदलता क्या विस्मय है! ।।१।।
गति बदली विश्वास भाव भी,
रहे बदलता यह मानव ।
सभ्य भाव के परिशोधन में
जाने क्या क्या है संभव।।२।।
सब धर्मों का एक लक्ष्य है,
मानव धर्म जिसे हम कहते ।
यही रहा आधार सभी का,
जिसमें सत्साधक नित बहते ।।३।।
नाम भिन्न जो भिन्न धर्म के,
उसी लक्ष्यहित मार्ग मात्र हैं।
किसी एक पर चल पाते हैं,
एक वस्तु, जो भी सुपात्र हैं।।४।।
जिनाराधना, शिवाराधना,
दोनों के हैं लक्ष्य समान।
सत्य और शिव सुंदर का,
स्थापन है, कुछ नहीं अमान ।।५।।
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
('मृणालिनी' महाकाव्य - सर्ग ९ से)
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