*तू ही माँ काली है*
अवनी से अम्बर तक तेरी प्रभा निराली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।१।।
जग की भ्रामक रँगरेली में, हम फँस जाते हैं;
अमृत तजकर मूरखजन कीचड़ ले आते हैं;
है चमक-दमक ही जग में, अन्दर से खाली हैं ।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।२।।
हम राग-द्वेष में डूबे, तुझको विस्मृत करते हैं;
तेरा पद तजकर हम धन के पीछे मरते हैं;
हा! कामधेनु को लौटाकर, बस सारमेय पाली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।३।।
तृष्णा, मत्सर, अघशाली, हम प्रतिपल रोते हैं;
माँ! यह कैसी माया है ?, हम क्यों विवेक खोते हैं ?
हम नन्हें-नन्हें पौधों की, माँ! तू ही माली है।
तू माता गौरी है, तू ही माँ काली है।।४।।
अगणित भुजवाली माता, लक्ष्मी, गौरी, गायत्री;
तू ही तृष्णा, श्रद्धा है, तू मुदिता, करुणा, मैत्री;
तू अद्वितीय तेजोमय. अहा! कैसी लाली है!
तू अम्बे साध्वी है, तू ही माँ काली है।।५।।
दुष्कृत का दुष्फल पाकरके हम नहीं सुधरते हैं;
सत को देते हैं त्याग, व कल्मष को अनुसरते हैं;
जग के सारे प्रतीक तू हैं, तू शेरावाली है।
तू ज्ञेया-अज्ञेया है, तू ही माँ काली है।।६।।
यह बालक, तव दर्शन का भूखा है, प्यासा है;
मैं कहने में अक्षम हूँ "क्या मम प्रत्याशा हैं ?"
निज हृत में मैंने माँ अब तेरी मूर्ति बसा ली है।
तू ही साध्वी सीता है, तू ही माँ काली है।।७।।
अशोक सिंह सत्यवीर
{भक्ति काव्य -'दुर्गाम्बरी' से }
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