मैं सत्य हूँ ।
हूँ ज्ञात उसको, जो सदा, खोजी रहा ज्ञानी;
मैं सत्य हूँ।।१।।
आद्यंत मम किञ्चित न कोई जानता है, सोच ले प्राणी;
हूँ अमित, उत्कट सत्य, रे! निस्सीम अभिमानी;
त्रेता हो, सत, द्वापर, या कलि की सभ्यता कानी;
वसुधा रहे, जाये, कि शशि वा दिवस का मानी;
रे! भ्रमित, मैं हूँ अमिट, सुन ले आज तू मानी;
मैं सत्य हूँ।।२।।
मैं अमर, अनादि, अमिट, अमृत फीका पड़ता है मम समक्ष;
रे!मानव तज अपनी लिप्सा, मैं मर जाऊँ,मत बना लक्ष्य;
अनगिनत बार फूटे घट, डूबी नावें, आये पतझड़ प्रत्यक्ष;
पर पनघट, तट, उपवन न मिटे, हूँ वैसा उत्कट अमर यक्ष।
है अमृतवत्, तेजस मेरी गरिमा की कहानी;
मैं सत्य हूँ ।।२।।
जो मेरे हित की बात छोड़, दुरहित करने पर तुल जाता,
तो याद रहे, वह निज कुल संग अस्तित्वहीन है हो जाता।
पाकर समस्त साधन, अंतस संतुष्ट नहीं है हो पाता;
जब भिड़ने की दुस्साहस की, कौरवदल मरे सकल भ्राता।
मैं दया हूँ, विधि हूँ, तथा हूँ धर्म का मानी;
मैं सत्य हूँ।।३।।
अशोक सिंह सत्यवीर
(पुस्तक - "कुछ कणिकाऐं")
[रचनाकाल- अगस्त 1999]
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