मृणालिनी
सर्ग एक
खगकुल के कलरव से गुंजित,
नभ ने जब मुस्कान विखेरी।
प्रात: की अरुणाम रश्मियों,
में नव आशा हुयी घनेरी।।१।।
शीतल मधु पवमान अचम्भित,
यह कैसी सुगंधि आपात?
दैवकृपा की मधु अनहोनी,
ले आया यह रुचिर प्रभात।।२।।
किसी सुमुखि की अकट कल्पना,
अथवा दिव्य मनुज का प्यार।
अगणित पुण्यपुंज का फल है,
अथवा युग की प्रकट पुकार।।३।।
ललनाओं की बलि में संचित,
है विप्लव की चिनगारी।
अथवा अबलाओं का बल है,
जिस पर हों हम बलिहारी।।४।।
शक्ति आदि है वरणीया है,
पूज्या है, है सुकुमारी।
जिसके जाये हैं हम सब ही,
जो कहलाती है नारी।।५।।
श्रद्धा कहो उसे या अबला,
किन्तु जन्मदायी है कौन?
उसी शक्ति के प्रखर तेज में,
सभी दिशाऐं होतीं मौन।।५।।
दुर्धर अंक मेटने आयी,
वही आज बन सुकुमारी।
दिव्य प्रभा ले हुयी अवतरित,
भू पर नन्हीं शिशु प्यारी।।७।।
कमलनाल सी मृदुता मोहक,
उगी पंक में पंकजहित।
माँ की स्नेहसुधा अभिसिंचित,
पिता मुग्ध हो, रहे चकित।।८।।
माँ ने कहा 'मृणाल' आ गयी,
कह 'मृणालिनी' पिता हँसे।
उठी खिलखिला तब नन्हीं शिशु,
मानों मुक्तादल विहँसे।।९।।
भाग्य सृजन हित दुहिता आयी,
'लक्ष्मी आयीं' स्वर गूँजा।
लो! चूको मत! आया अवसर,
ले लो पुष्प करो पूजा।।१०।।
(महाकाव्य मृणालिनी
सर्ग १)
अशोक सिंह सत्यवीर
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