भोर हुई, संसार जग गया,
नभ में खग स्वर दिया सुनाई।
बुला रहा मधुवन मस्ती में,
नयी सुबह रचती तरुणाई।।१।।
अरुण प्रात के मधु संगम से,
सुमन स्नेह से अब मुस्काये।
'सत्यवीर' आह्वान अनूठा,
सरल हृदय को नित प्रति भाये।।२।।
सन्निपात उद्गार फूटते,
किन्तु तृषा कब हो परिभाषित?
स्वप्न श्रृंखला भंग हुई,
पर मानस में कुछ रिक्ति अभाषित।।३।।
ऋद्धि-सिद्धियाँ बरस पड़ीं अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक नव्य अनुभूति मुखर हो,
करे हृदय में नये प्रयोग।।४।।
लो! अब सावधान है मानस,
टेक रचे मादक संन्यास।
इस गति पर वैकुण्ठ पुकारे,
लहरें करें वक्र उपहास।।५।।
अशोक सिंह सत्यवीर
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