Thursday, October 27, 2016

* เคเคธी เคฆीเคชाเคตเคฒी เคฎเคจे *


* ऐसी दीपावली मने *

हृदय भरा हो मृदु भावों से, मानस में अनुराग बने।
ऐसी दीपावली मने।।१।।

अविरल निस्पृहता ही घृत हो,
सहज यत्न की ज्योति जले।
वीतरागता की बाती हो,
नित प्रसन्नता राशि फले।

सद्गुण दीपक बनें घने।।२।।

उठें हृदय से तेज भाव जो,
कर्म-वचन से मुखरित हों।
प्रेय प्रकट हो सहज टेक पर,
श्रेय कर्म में रत नित हो।

वज्र बने आह्लाद सनातन, मुदिता, दुख पर आज तने।।३।।

हृत्तन्त्री में राग स्नेह का उठे,
कि मानस मधुरिम हो।
गतिमयता में प्रीति सहज हो,
पथ ज्योतित हो, या तम हो।

पथझड़ में मधुमास सरीखा, द्वंद्वहीन आह्लाद बने।।४।।

'सत्यवीर' उत्सव सार्थक हैं,
जब मानस आह्लाद गहे।
हृदय जगत की जड़ता टूटे,
नवल राग की धार बहे।

जागृति दीप जलें ऐसे कि, पुन: तिमिर में पग न सने।।५।।
>>
अशोक सिंह सत्यवीर
(गीत संग्रह - स्वर लहरी यह नयी-नयी है )

Sunday, October 9, 2016

* เคธเคฌ เคงเคฐ्เคฎों เค•ा เคฒเค•्เคท्เคฏ เคเค• เคนै *

ऊँच -नीच की भेद दृष्टि ले,
धार्मिक जिज्ञाशा त्रुटि मय है।
मूलधर्म उद्भव के पल से,
रूप बदलता क्या विस्मय है! ।।१।।

गति बदली विश्वास भाव भी,
रहे बदलता यह मानव ।
सभ्य भाव के परिशोधन में
जाने क्या क्या है संभव।।२।।

सब धर्मों का एक लक्ष्य है,
मानव धर्म जिसे हम कहते ।
यही रहा आधार सभी का,
जिसमें सत्साधक नित बहते ।।३।।

नाम भिन्न जो भिन्न धर्म के,
उसी लक्ष्यहित मार्ग मात्र हैं।
किसी एक पर चल पाते हैं,
एक वस्तु, जो भी सुपात्र हैं।।४।।

जिनाराधना,  शिवाराधना,
दोनों के हैं लक्ष्य समान।
सत्य और शिव सुंदर का,
स्थापन है, कुछ नहीं अमान ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'

('मृणालिनी' महाकाव्य - सर्ग ९ से)

Friday, October 7, 2016

*เคšเคฐเคฃ เคชเคก़ूँ เคนे เคฎाเคค เคคुเคฎ्เคนाเคฐे!*

चरण पड़ूँ हे मात तुम्हारे!

भवप्रीता, कल्याणी माँ के शरण शीघ्र मन जा रे!
अगणित रूप नाम हैं अगणित अगणित रंग तुम्हारे!
कलुष रूप दानव निशुम्भ अरु, अति कराल महिषासुर मारे।
तुम्हीं सारदा, ब्रह्मचारिणी, कण-कण बसती माँ रे!
कण-कण है प्रतिरूप तुम्हारा, हम हैं सहारे।
जब भूला तेरे स्वरूप को, जीवन-तत्व बहा रे!
तृष्णा, श्रद्धा,रौद्र रूप तू, सत-चित-आनन्द माँ रे!
सत्यवीर है शरण तुम्हारे शक्ति उसे दे माँ रे!

अशोक सिंह सत्यवीर
(भक्ति काव्य - दुर्गाम्बरी से)

Wednesday, October 5, 2016

* เคคू เคนी เคฎाँ เค•ाเคฒी เคนै *

*तू ही माँ काली है*

अवनी से अम्बर तक तेरी प्रभा निराली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।१।।

जग की भ्रामक रँगरेली में, हम फँस जाते हैं;
अमृत तजकर मूरखजन कीचड़ ले आते हैं;
है चमक-दमक ही जग में, अन्दर से खाली हैं ।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।२।।

हम राग-द्वेष में डूबे, तुझको विस्मृत करते हैं;
तेरा पद तजकर हम धन के पीछे मरते हैं;
हा! कामधेनु को लौटाकर, बस सारमेय पाली है।
तू माता कृष्णा है तू ही माँ काली है।।३।।

तृष्णा, मत्सर, अघशाली, हम प्रतिपल रोते हैं;
माँ! यह कैसी माया है ?, हम क्यों विवेक खोते हैं ?
हम नन्हें-नन्हें पौधों की, माँ! तू ही माली है।
तू माता गौरी है, तू ही माँ काली है।।४।।

अगणित भुजवाली माता, लक्ष्मी, गौरी, गायत्री;
तू ही तृष्णा, श्रद्धा है, तू मुदिता, करुणा, मैत्री;
तू अद्वितीय तेजोमय. अहा! कैसी लाली है!
तू अम्बे साध्वी है, तू ही माँ काली है।।५।।

दुष्कृत का दुष्फल पाकरके हम नहीं सुधरते हैं;
सत को देते हैं त्याग, व कल्मष को अनुसरते हैं;
जग के सारे प्रतीक तू हैं, तू शेरावाली है।
तू ज्ञेया-अज्ञेया है, तू ही माँ काली है।।६।।

यह बालक, तव दर्शन का भूखा है, प्यासा है;
मैं कहने में अक्षम हूँ "क्या मम प्रत्याशा हैं ?"
निज हृत में मैंने माँ अब तेरी मूर्ति बसा ली है।
तू ही साध्वी सीता है, तू ही माँ काली है।।७।।

अशोक सिंह सत्यवीर
{भक्ति काव्य -'दुर्गाम्बरी' से }