* जयति- पर्व *
कहलाना हो यदि वीर,
काल को क्रुद्ध करो।
दुर्धर बाधाओं से,
प्रवीर! तुम युद्ध करो।।१।।
चीरो दुर्गमपथ-वक्ष,
अनोखे बुद्ध बनो।
निर्भय, निरपेक्ष, उदार,
शीघ्र सद्बुद्ध बनो।।२।।
पद्मा की लहरों में खोजो,
खोजो कवियों की वाणी में।
तुम अपनी पावन शक्ति निहारो,
जग की अमर कहानी में।।३।।
तुम अमियपुत्र, शक्तित अनंत,
कहते अम्बर, थल, दिग्-दिगन्त।
तुम अजर, अमर, अक्षर, अजेय,
कहते नभ के तारे अनंत।।४।।
कंकर-कंकर जिसका शंकर,
वह भूमि तुम्हारी माता है।
निश्चल नगपति, ऊर्जस्वित अति,
चिर जय का स्वर दुहराता है।।५।।
गंगा की निर्मल धार यहीं,
यमुना की श्यामलता अथाह।
हे वीरपुत्र! विक्रम वंशज!,
तुममें में हो केवल एक चाह।।६।।
बढ़ते जाओ- बढ़ते जाओ!
बाधाओं को भयभीत करो।
दुर्गमता भी हो विवश,
अहर्निश संकट में भी विजय वरो।।७।।
प्रस्तर को धूल बना, सत्वर-
शत बार स्वप्न साकार करो।
निर्भय बन बढ़ो! नियति के-
शुभ आशीषों को स्वीकार करो।।८।।
पा जाओ निश्चित लक्ष्य,
न पौरुष का, किञ्चित अपमान करो।
तैयार रहो प्रतिक्षण, आवश्यक हो तो-
सहर्ष विषपान करो।।९।।
पर, हार न मानो हे प्रवीर!
अनुपम जय-शर संधान करो।
हे देवपुत्र! स्तन्य-लाज रखकर,
माँ का सम्मान करो।।१०।।
हे अमर प्रतीची, प्राची दिक्!
उत्तर, दक्षिण, कुछ शान करो।
है अमृतपुत्र का 'जयति- पर्व',
कर तूर्यनाद, जयगान करो।।११।।
रचयिता: अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य- संग्रह: "यह मस्तक है कुछ गर्व भरा"
प्रकाशन-तिथि: १३ अगस्त सन् २०००