Tuesday, September 20, 2016

* เคœเคฏเคคि เคชเคฐ्เคต *

* जयति- पर्व *

कहलाना हो यदि वीर,
काल को क्रुद्ध करो।
दुर्धर बाधाओं से,
प्रवीर! तुम युद्ध करो।।१।।

चीरो दुर्गमपथ-वक्ष,
अनोखे बुद्ध बनो।
निर्भय, निरपेक्ष, उदार,
शीघ्र सद्बुद्ध बनो।।२।।

पद्मा की लहरों में खोजो,
खोजो कवियों की वाणी में।
तुम अपनी पावन शक्ति निहारो,
जग की अमर कहानी में।।३।।

तुम अमियपुत्र, शक्तित अनंत,
कहते अम्बर, थल, दिग्‌-दिगन्त।
तुम अजर, अमर, अक्षर, अजेय,
कहते नभ के तारे अनंत।।४।।

कंकर-कंकर जिसका शंकर,
वह भूमि तुम्हारी माता है।
निश्चल नगपति, ऊर्जस्वित अति,
चिर जय का स्वर दुहराता है।।५।।

गंगा की निर्मल धार यहीं,
यमुना की श्यामलता अथाह।
हे वीरपुत्र! विक्रम वंशज!,
तुममें में हो केवल एक चाह।।६।।

बढ़ते जाओ- बढ़ते जाओ!
बाधाओं को भयभीत करो।
दुर्गमता भी हो विवश,
अहर्निश संकट में भी विजय वरो।।७।।

प्रस्तर को धूल बना, सत्वर-
शत बार स्वप्न साकार करो।
निर्भय बन बढ़ो! नियति के-
शुभ आशीषों को स्वीकार करो।।८।।

पा जाओ निश्चित लक्ष्य,
न पौरुष का, किञ्चित अपमान करो।
तैयार रहो प्रतिक्षण, आवश्यक हो तो-
सहर्ष विषपान करो।।९।।

पर, हार न मानो हे प्रवीर!
अनुपम जय-शर संधान करो।
हे देवपुत्र! स्तन्य-लाज रखकर,
माँ का सम्मान करो।।१०।।

हे अमर प्रतीची, प्राची दिक्‌!
उत्तर, दक्षिण, कुछ शान करो।
है अमृतपुत्र का 'जयति- पर्व',
कर तूर्यनाद, जयगान करो।।११।।

रचयिता: अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य- संग्रह: "यह मस्तक है कुछ गर्व भरा"

प्रकाशन-तिथि: १३ अगस्त सन् २०००

Friday, September 16, 2016

เคฎृเคฃाเคฒिเคจी (เคธเคฐ्เค— -เฅง)

मृणालिनी

सर्ग एक
खगकुल के कलरव से गुंजित,
नभ ने जब मुस्कान विखेरी।
प्रात: की अरुणाम रश्मियों,
में नव आशा हुयी घनेरी।।१।।

शीतल मधु पवमान अचम्भित,
यह कैसी सुगंधि आपात?
दैवकृपा की मधु अनहोनी,
ले आया यह रुचिर प्रभात।।२।।

किसी सुमुखि की अकट कल्पना,
अथवा दिव्य मनुज का प्यार।
अगणित पुण्यपुंज का फल है,
अथवा युग की प्रकट पुकार।।३।।

ललनाओं की बलि में संचित,
है विप्लव की चिनगारी।
अथवा अबलाओं का बल है,
जिस पर हों हम बलिहारी।।४।।

शक्ति आदि है वरणीया है,
पूज्या है, है सुकुमारी।
जिसके जाये हैं हम सब ही,
जो कहलाती है नारी।।५।।

श्रद्धा कहो उसे या अबला,
किन्तु जन्मदायी है कौन?
उसी शक्ति के प्रखर तेज में,
सभी दिशाऐं होतीं मौन।।५।।

दुर्धर अंक मेटने आयी,
वही आज बन सुकुमारी।
दिव्य प्रभा ले हुयी अवतरित,
भू पर नन्हीं शिशु प्यारी।।७।।

कमलनाल सी मृदुता मोहक,
उगी पंक में पंकजहित।
माँ की स्नेहसुधा अभिसिंचित,
पिता मुग्ध हो, रहे चकित।।८।।

माँ ने कहा 'मृणाल' आ गयी,
कह 'मृणालिनी' पिता हँसे।
उठी खिलखिला तब नन्हीं शिशु,
मानों मुक्तादल विहँसे।।९।।

भाग्य सृजन हित दुहिता आयी,
'लक्ष्मी आयीं' स्वर गूँजा।
लो! चूको मत! आया अवसर,
ले लो पुष्प करो पूजा।।१०।।

(महाकाव्य मृणालिनी
सर्ग १)
अशोक सिंह सत्यवीर

Tuesday, September 13, 2016

☆ เคนिंเคฆी เคฆिเคตเคธ 14 เคธिเคคเคฎ्เคฌเคฐ เคชเคฐ เคตिเคถेเคท ☆

** เคนिเคจ्เคฆी เคฆिเคตเคธ 14 เคธिเคคเคฎ्เคฌเคฐ เคชเคฐ เคตिเคถेเคท**

เคœिเคธ เคธ्เคตเคฐ เคฎें เคฎुเค–เคฐिเคค เคนो เค—ूँเคœी, เคฌเคฒिเคฆाเคจी เค…เคญिเคฒाเคทा।
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เคฐเคšเคฏिเคคा- เค…เคถोเค• เคธिंเคน 'เคธเคค्เคฏเคตीเคฐ' {เคฎूเคฒ เค•เคตिเคคा เคธंเค—्เคฐเคน- เคธ्เคตเคฐ เคฒเคนเคฐी เคฏเคน เคจเคฏी เคจเคฏी เคนै "}

Monday, September 5, 2016

* เคจเคฏी เคธुเคฌเคน เคฆे เคคเคฐुเคฃाเคˆ *

भोर हुई, संसार जग गया,
नभ में खग स्वर दिया सुनाई।
बुला रहा मधुवन मस्ती में,
नयी सुबह रचती तरुणाई।।१।।

अरुण प्रात के मधु संगम से,
सुमन स्नेह से अब मुस्काये।
'सत्यवीर' आह्वान अनूठा,
सरल हृदय को नित प्रति भाये।।२।।

सन्निपात उद्गार फूटते,
किन्तु तृषा कब हो परिभाषित?
स्वप्न श्रृंखला भंग हुई,
पर मानस में कुछ रिक्ति अभाषित।।३।।

ऋद्धि-सिद्धियाँ बरस पड़ीं अब,
निरसित रहे सभी अभियोग।
एक नव्य अनुभूति मुखर हो,
करे हृदय में नये प्रयोग।।४।।

लो! अब सावधान है मानस,
टेक रचे मादक संन्यास।
इस गति पर वैकुण्ठ पुकारे,
लहरें करें वक्र उपहास।।५।।

अशोक सिंह सत्यवीर