Wednesday, August 17, 2016

* रक्षाबन्धन: सात्विक व्रत का संकल्प दिवस *


रक्षाबन्धन: सात्विक व्रत का संकल्प दिवस

रक्षाबन्धन कर्तव्य नहीं,
सात्विक-व्रत का संकल्प दिवस है।
रक्षाबन्धन है पवित्रता का पर्व,
एक सात्विक साहस है।
सत-व्रत की देवी को, अपना सर्वस्व समर्पण है।
व्रत की याद दिलाने आया यह रक्षाबन्धन है।।१।।

जब कर्मवती ने निज रक्षाहित,
वीर हुमायूँ को इसकी सौगन्ध दिलायी।
धर्म से, व्रत से हुआ आबद्ध जब वह,
बहन रक्षा के लिए, निज प्राण की बाजी लगायी।
त्योहारों में श्रेष्ठ सुमति का यह नन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।२।।

सात्विक व्रत के इस महापर्व में,
होता बन्धु-भगिनि का सात्विक अभिसार।
राखी बाँध पवित्र बनाती,
अब होवे रक्षाव्रत साकार।
सभी अपशकुन नष्ट हो रहे, देखो! उनका ही क्रन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।३।।

देखो! पूरब के अम्बर में,
वह धूमकेतु दिखता कराल।
सात्विकता पर संकट आया,
वह निकट आ रहा भीषण काल।
युग की पुकार सुन बोलो अब, 'आवश्यक रक्षाबन्धन है'।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।४।।

जागो! निज व्रत को याद करो!
तुम डरो नहीं, हाँ निर्भय हो।
उठ जाओ! अरि पर टूट पड़ो,
तम पर सात्विकता की जय हो।
काली बदली के भेदक, सत रवि का बन्दन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।५।।

कर महायुद्ध उस दुर्विनीत से,
सात्विकता की दिग्विजय करो!
उठ जाओ शीघ्र! आवश्यक हो,
तो कलम त्याग असि शीघ्र वरो!
है जग की सब सम्पदा शून्य, तेरा व्रत ही सच्चा धन है।
व्रत की याद दिलाता यह रक्षाबन्धन है।।६।।

अशोक सिंह सत्यवीर{प्रकाशन: वर्ष 2005, पत्र-'श्रमिक-मित्र', सहारनपुर से साभार}

Wednesday, August 3, 2016

मृणालिनी (सर्ग-४)

क्रान्तिविहित सिद्धांत अपरिचित,
क्यों स्थापित पत टकराऐं?
किन्तु भेद बन जाय बली जब,
तब नव आहट हमको भाऐ।।१।।

समय-समय पर आवश्यकतावश,
विनियम होते हैं निर्मित।
तो यदि आवश्यक है तो उनमें,
संशोधन कहलाते समुचित।।२।।

प्रज्ञा का आघोष प्रकल्पित,
गुरुता-लघुता भी नि:सार।
भेदसृजक अनिवार प्रतिष्ठा,
किन्तु सृजित हो बारंबार।।३।।

बड़े मनीषी हुए विश्व में,
किन्तु नहीं आडम्बर हारा।
इसीलिए कर्तव्य निभाकर,
देह तजा कुछ भी न निहारा।।
४।।

पूर्ण अवैज्ञानिक कुछ बातें,
प्रचलित, हैं घातें बन भारी।
जिन्हें प्रचारित हमीं कर रहे,
समता मर्यादा पर हारी।।५।।

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स्थापित अभिलाषाओं का
पुनर्विवेचन क्यों न करें?
नये स्वप्न की नव मीमांशाहित,
कुछ तो अधिकार वरें।।६।।

क्रियाशील मस्तिष्क करे कब-
नव रचना; आधार पुराने।
रीति-नीति की पद्धति आदिम,
कब तक होंगे वही बहाने?।।७।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(महाकाव्य-"मृणालिनी", सर्ग-४ के कुछ पंक्तियाँ )