Sunday, June 12, 2016

เคธเคฌ เคงเคฐ्เคฎों เค•ा เคเค• เคฒเค•्เคท्เคฏ เคนै

ऊँच -नीच की भेद दृष्टि ले,
धार्मिक जिज्ञाशा त्रुटि मय है।
मूलधर्म उद्भव के पल से,
रूप बदलता क्या विस्मय है! ।।१।।

गति बदली विश्वास भाव भी,
रहे बदलता यह मानव ।
सभ्य भाव के परिशोधन में
जाने क्या क्या है संभव।।२।।

सब धर्मों का एक लक्ष्य है,
मानव धर्म जिसे हम कहते ।
यही रहा आधार सभी का,
जिसमें सत्साधक नित बहते ।।३।।

नाम भिन्न जो भिन्न धर्म के,
उसी लक्ष्यहित मार्ग मात्र हैं।
किसी एक पर चल पाते हैं,
एक वस्तु, जो भी सुपात्र हैं।।४।।

जिनाराधना,  शिवाराधना,
दोनों के हैं लक्ष्य समान।
सत्य और शिव सुंदर का,
स्थापन है, कुछ नहीं अमान ।।५।।

(मृणालिनी महाकाव्य - सर्ग ९ से)

Tuesday, June 7, 2016

เคตिเคฐเคน เคฒिเค เค…เคฌ เคนृเคฆเคฏ เคชुเค•ाเคฐे


* विरह लिए अब हृदय पुकारे *

मादक लघु आघात हृदय पर,
रह-रहकर अब शांति बुहारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे।।१।।

प्रिया मिली जब, आशा उपजी,
सुख शायद जीवन में आये।
कुम्हलाया जो हृदय, पुन: से-
उछले मानों नव निधि पाये।

किन्तु हाथ से कली खो गयी, फूल कहाँ कब हाथ लगा रे!
बिछुड़न का संताप अनूठा, बिरह लिए अब हृदय पुकारे।।२।।

दुनिया की अवरोधी धारा,
मर्यादा का अप्रिय बंधन।
तोड़ नहीं पाते जब प्रेमी,
भरे हृदय में घुटन सघन।

बली नियति पर सौंप, शांत हों, या स्वघात के बहें पनारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे ।।३।।

क्रांति घटित होगी किस तट पर,
जबकि प्रेम के घाती सब?
जाने कब आयेगा वह युग,
प्रेमीहित भी होंगे उत्सव?

कब बसंत के पल आयेंगे, रुक जायें आँखों के धारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे।।४।।

बदल रहीं सब परिभाषाऐं,
'सत्यवीर' दिख रहा सुधाकर।
प्रेम बना वरदान, सिद्ध है,
हृदयों के अब बदले सब स्वर।

विरह मिलन का रूप दूसरा, प्रेमसिद्धि में सब कुछ हारे।
बिछुड़न का संताप अनूठा, विरह लिए अब हृदय पुकारे ।।५।।

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(पुस्तक - लो! आखिर आया मधुमास )