🌲 दुर्गा तीसिका 🌲
🍀दुर्गतिहरणी मात हे! अभय-प्रदायिनि आज।
भक्ति प्रबल अब दीजिए, हे माँ! पूरणकाज॥1॥🍀
🌱घट-घट में जो बसती प्रतिपल,
कण-कण में है अमल प्रसार।
वही सत्य है, इस त्रिभुवन में,
शेष असत है, और असार॥2॥🌱
🌱दु:ख, दारिद्रय, दैन्यता हरती,
बुद्धि, बिमल, पावन जो करती।
उस माँ के हम सभी पुत्र हैं,
और, सुता है यह शुचि धरती॥3॥🌱
🌱जिसकी स्मृति मात्र, शक्ति का-
है करती अद्भुत संचार।
उसके चिन्तन में न लगे जो,
है वह इस धरणी पर भार॥4॥🌱
🌱शक्ति, वीर्य, आयुष्यहीन वे मनुज,
जो, न माँ को भजते हैं।
भ्रमबश कुत्सा गले लगाते,
हृतनिवासिनी को तजते हैं॥5॥🌱
🌱बन्धु उसे मत भूलो किञ्चित,
गावो उसके अद्भुत गान।
वही जनक, माता, भगिनी है,
विद्या, वैभव, सच्चा ज्ञान॥6॥🌱
🌱नदियों में गंगा, शैलों में-
वही शैलपति, बिमल, महान।
विद्याओं में आत्मज्ञान है,
स्थिर, पर विस्मय गतिमान॥7॥🌱
🌱वायु, नीर, द्रुम, और मृत्तिका,
दृश्यमान जो सघन, विरल।
उन सबकी वह अद्भुत जननी,
निराकार, साकार, सरल॥8॥🌱
🌱अम्बु स्वयं में निराकार है,
किन्तु वही बनता है हिम।
वैसे भक्ति द्रवित जब करती,
जाती मूर्तिमान माँ बन॥9॥🌱
🌱सत्व, रजस, तमरूप, अनखमय,
और प्रशान्त, किन्तु अविकार।
क्षरण, पुष्टि द्वय रूप मात के,
उसकी लीला अगम, अपार॥10॥🌱
🌱बंधु आज वन्दन करो, अम्ब करे कल्याण।
वही लक्ष्य हो सभी का, और प्रीति हो बाण॥11॥🌱
🌱सिंह वाहिनी कर कृपा, बुद्धि बिमल हो जाय।
तव चरणों में प्रीति हो, तू कर यही उपाय॥12॥🌱
🌱हे माँ! तेरे रूप अमित हैं,
और अनन्त- अमित तव नाम।
हे अनन्त भावों की जननी!
तुमको मेरा कोटि प्रणाम॥13॥🌱
🌱किस स्वरूप का ध्यान करूँ मैं?
पाऊँ मैं कैसे सद्ज्ञान?
समझ न पाता हे जगदम्बे!
कैसे हो मेरा कल्याण? 14॥🌱
🌱राम, कृष्ण, शंकर, गणपति तू,
ईशा, बुद्ध, और अल्लाह।
हे दुर्गा! तू ही प्रसन्नता,
दीन अवस्था में तू आह॥15॥🌱
🌱लोभ, मोह, लज्जा, तृष्णा तू,
तू ही घृणा, द्वेष, आचार।
श्रद्धा, प्रेम, व करुणा, शुचिता,
शक्तिहीनता, शक्तिप्रसार॥16॥🌱
🌱'प्राची' में तू ही 'ऐन्द्री' है,
'आग्नेय' में 'आग्नेया' तू है।
हे! 'वाराही' 'पश्चिम' दिक् में,
और 'नैऋर्त्य' में 'खड्गधारिणी'॥17॥🌱
🌱अम्ब 'वारुणी' तू 'पश्चिम' में,
'वायव्य' दिशा में हे 'मृगवाही'!
हे 'कौमारी'! 'उत्तर' दिक् में,
'शूलधारिणी' तू 'ईशान' में ॥18॥ 🌱
🌱और शेष दिक् में रक्षा कर,
प्रतिपल हे माता कल्याणी!
हे माँ! कृपा करो तुम अविरल,
तुम ही 'मूकशीलता', 'वाणी'॥19॥🌱
🌱तेरी इच्छामात्र प्रसवती-
यह अनुपम ब्रह्माण्ड विशाल।
यह हरीतिमामय शुचि धरती,
त्व-ईह की जीवन्त मशाल॥20॥🌱
🌱तव दर्शन हो सतत् ही, दो ऐसा वरदान।
इस जग में भटका बहुत, अब तो दो सद्ज्ञान॥21॥🌱
🌱मुझे स्पृहाशून्य बनाकर,
रागहीन कर दे, हे मात!
मेरे हृत में तू बस जा माँ,
आवे चिर, सच्चा सुप्रभात॥22॥🌱
🌱समरसभूत ब्रह्मस्वरूप का,
देती निर्विकल्प जो ज्ञान।
त्रिपुरसुन्दरी, सर्वआत्मिका,
को है मेरा कोटि प्रणाम॥23॥🌱
🌱हे माँ! मैं निरुपाय हूँ, कुटिल, पाप की खान।
अब हूँ तव- पद में पड़ा, कर माँ तू कल्याण॥24॥🌱
🌱कृष्णा, काली, चण्डिका, मन के यातुधान को बध!
दुर्गा! दुर्गति नाश कर, तव सुत रहे अबाध॥25॥🌱
🌱तव-स्मृति आधार बनाकर,
लिख शुचिता का ग्रन्थ विशाल।
तुझमें ही मिल जाये तत्क्षण,
तेरा यह अति अद्भुत लाल॥27॥🌱
🌱अभय रहूँ मैं, मात! अहर्निश,
तू ही मेरा कवच रहे।
जय मम चिर सहचर बन जावे,
मन में ज्ञान-प्रवाह बहे॥28॥🌱
🌱है धरणी आक्रान्त अब, असुर बढ़े उद्भ्रान्त।
प्रकट आज हो मात तुम, और सभी हों शान्त॥29॥🌱
🌱माता की महिमा अमित, अकथ स्वरूप, अपार।
'सत्यवीर' तव-चरण में, झुकता बारम्बार॥30॥🌱
🌹अशोक सिंह 'सत्यवीर' 🌹
☔भक्ति- काव्य संग्रह- 'दुर्गाम्बरी' से☔
{रचनाकाल -फरवरी 2003}